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Full Biography - Hindi

mosquee

जै बाबा मुराद शाह जी | जै बाबा लाडी शाह जी



नकोदर शहर जिसे पीरों और फ़क़ीरों की धरती भी कहा जाता है. न-को-दर जिस का मतलब ही है, इस जैसा ना कोई दर. जहाँ ब्रहम ज्ञानीयों ने जन्म लिया और इस धरती को चार चाँद लग गए. आज़ादी से पहले की बात है एक फ़क़ीर बाबा शेरे शाह जी पाकिस्तान से पंजाब आये. जिन्होंने रहने के लिए नकोदर की धरती को चुना. जो वीरानों और जंगलों में ही रहना पसंद करते थे. बाबा जी ज़्यादां तर लोगों को अपने पास आने से रोकते थे जिससे उनकी इबादत में विघन ना पड़े. और कभी कभी छोटे पत्थर भी मारते जिससे उन्हें लोग पागल समझें और उनके पास ना आएं. वह अपना ज़्यादां तर वक़्त ईष्वर की बंदगी में ही लगाते थे और वारिस शाह की हीर पढ़ते रहते थे.

नकोदर शहर में एक ज़ैलदारों का परिवार भी रहता था जो पीरों फ़क़ीरों की सेवा के लीये सदा तैयार रहते थे. एक बार उनके घर एक फ़क़ीर आए जिनकी उन्होंने बहुत सेवा की, फ़क़ीर ने खुश होकर कहा “मांगो जो माँगना चाहो”. उन्हों ने कहा “ईष्वर का दिया सब कुछ है बस भगवान का नाम चाहिए”. फ़क़ीर ने कहा “एक नहीं बल्कि दो दो भगवान का नाम लेने वाले तुम्हारे पैदा होंगे”. उस परिवार में जल्दी ही एक बच्चे ने जन्म लिया जिसका नाम विद्या सागर रखा गया. जिन्हे आज हम बाबा मुराद शाह जी के नाम से जानते हैं. बाबा जी तीन भाई थे, बाबा जी सबसे छोटे थे. बाबा जी पढ़ाई लिखाई में बहुत ही अब्वल थे और उस ज़माने में भी बहुत आगे तक पढ़े. पढ़ाई खत्म होने के बाद उन्होंने नौकरी शुरू कर दी, बाबा जी बिजली बोर्ड दिल्ली में SDO के पद पर काम करते थे.

जहाँ बाबा जी काम करते थे वहां उनके साथ एक मुस्लिम लड़की भी काम करती थी. बाबा जी उनसे रूहानी प्यार करते थे, एक दिन उस लड़की की शादी तय हो गयी और उसने बाबा जी से कहा कि अगर तुम्हे मुझसे शादी करनी है तो पहले मुस्लमान बनना होगा. यह सुनकर बाबा जी ने घर वापिस चले जाने का फैसला किया, नौकरी छोड़ दी और दुनिया की हर चीज़ से मोह टूट गया. उन्होंने वारिस शाह की “हीर” किताब खरीदी और हीर पढ़ते पढ़ते अपने शहर नकोदर की तरफ पैदल ही चलने लगे, और रास्ते में जितने भी धार्मिक स्थान आए वहां सजदा करते गए और नकोदर पहुँच गए. जब घर के पास पहुंचे तो उन्हें बाबा शेरे शाह जी के दर्शन हुए. शेरे शाह जी ने आवाज़ लगायी "ओह विद्या सागर कहाँ जा रहे हो ?" बाबा जी ने सोचा कि यह कोई रूहानी इंसान लग रहे हैं और पास चले गए. शेरे शाह जी ने फिर पूछा "क्यों फिर मुस्लमान बनना है ?" बाबा जी ने कहा "जी बनूँगा". शेरे शाह जी ने कहा जाओ फिर एक बार अपने घर जाकर सबसे मिल आओ और आकर टूटी प्यार की तार को ईष्वर से जोड़लो, फिर ना मुस्लमान की ज़रूरत ना हिन्दू की. बाबा मुराद शाह जी घर जाकर सबसे मिल आए और शेरे शाह जी के पास रहकर उनकी सेवा करने लगे. बाबा शेरे शाह जी की तरफ से उन्हें बहुत इम्तिहान देने पड़े पर वह सभी पास करते गए और उनके सबसे प्यारे बन गए. पर लोगों ने बातें करनी शुरू करदी कि ज़ैलदारों का लड़का नौकरी छोड़ कर एक फ़क़ीर के पीछे लग गया है. यह सुनकर बाबा जी के बड़े भाई उनको अक्सर पकड़ कर घर ले आते और कभी कभी उनपर हाथ भी उठाते. बाबा जी ने कई बार मना किया और बोला “लाला हाथ नहीं उठाना”, पर बाबा जी के बड़े भाई नहीं माने, बाबा जी ने अंत में कहा “ठीक है लाला तुम ऐसे नहीं मानोगे, अब तुम्हें फिर देखूंगा मारते हुए जब तुम्हारा बेटा तुम्हारी आँखों के सामने फ़क़ीर बनेगा”. फ़क़ीरों की ज़ुबान हमेशा अटल होती है. यह कहकर बाबा जी शेरे शाह जी के पास चले गए.

ऐसे ही चलता रहा, आज़ादी के कुछ साल बाद एक दिन शेरे शाह जी के बेटे और बहू उन्हें वापिस लेकर जाने के लिए आ गए. शेरे शाह जी कहने लगे कि मुझे लेकर जाने से पहले विद्या सागर से पूछलो. बाबा जी बोले कि आपके पिता हैं मैं भला कैसे मना कर सकता हूँ, जैसे आप ठीक समझें. फिर बाबा जी शेरे शाह जी से बोले “कि मैं आपके बिना कैसे रहूँगा, आप मुझे बहुत याद आओगे”. शेरे शाह जी ने कहा कि जब भी तू मुझे याद किया करेगा मैं तुझे मिलने आ जाया करूँगा. फिर जब शेरे शाह जी जाने लगे तब बाबा जी को पास बुलाया और बोले मेरे बाद दुनिया तुझे याद रखेगी, तेरा नाम रहती दुनिया तक आबाद रहेगा, तूं मेरी पीढ़ी का वारिस है, और आज के बाद दुनिया तुझे मुराद शाह के नाम से याद रखेगी और जो भी तेरे दर पे आएगा मुँह मांगी मुरादें पायेगा.

“झोली भर जाएगी मुरादों से तेरी, सच्चे दिल से देख मांगकर”

फिर बाबा मुराद शाह जी वहीँ रहने लगे जहाँ शेरे शाह जी रहते थे. उस समय वहां जंगल की तरह था और एक पानी का तालाब था जहाँ आज एक खूबसूरत दरबार है. बाबा मुराद शाह जी हीर पढ़ते रहते थे और अपने मुरशद को याद करते रहते थे. बाबा जी के पास एक बन्दर और एक तुम्बी भी थी. एक दिन बाबा जी बैठे थे तभी एक औरत को रोटी का डिब्बा लेकर जाते देखा, बाबा जी ने उसको आवाज़ लगायी और कहा “माता कहाँ जा रही हो?”. औरत ने कहा “मेरे लड़कों को फांसी होने वाली है मैं उनके लिए रोटी लेकर जा रही हूँ”. बाबा जी बोले वह तो बरी हो गए. औरत को लगा कि वह मज़ाक कर रहे हैं. जब वह आगे गयी तो वहां खड़े एक पुलिस वाले ने बताया की तुम्हारे लड़के तो बरी होगए और चले गए. फिर वह औरत दुबारा बाबा जी के पास गयी, वह अक्सर उनके लिए चाय लेकर आती और उनके कपडे धोकर साफ़ रख जाती. बाबा जी उस औरत को अपनी माँ समझते थे. एक दिन बाबा जी ने उस औरत को कहा "माता तुम्हारे लड़कों को इंग्लैंड भेज दें ?" वह कहने लगी हम तो बहुत गरीब हैं हम कैसे भेज सकते हैं. बाबा जी ने कहा मैंने तुम्हे अपनी माँ कहा है, अपने लड़कों को बोलो दिल्ली जा कर इस इंसान से मिलें, वह बाहर ज़रूर चले जाएंगे. ऐसे ही हुआ और कुछ समय बाद दोनो लड़के इंग्लैंड पहुँच गए.

“ना महंगी मिलती है ना सस्ती मिलती है, यह जो मस्ती है वह मिटाकर हस्ती मिलती है”

बाबा मुराद शाह जी हर साल मेला भी करवाते थे जिस पर कव्वाली होती, और उस समय कुछ ही गिनती के लोग आते। कव्वाली की महफ़िल हर साल एक मलेरकोटला के कव्वाल शुरू करते थे. उस समय के मुताबिक बाबा जी के पास जो पैसे थे वह उनको दिए और कहा मेरे बाद लाडी शाह जी यहाँ आएंगे और तुम्हारा हिसाब तुम्हारे बेटे और पोतों को कितने गुना करके लौटाएंगे. आज भी वही कव्वालों की पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही है और अब भी मेले पर वही कव्वाल कव्वाली शुरू करते हैं. ऐसे ही समय निकलता रहा, बाबा मुराद शाह जी हमेशा नंगे पाऊं चलते थे. बाबा शेरे शाह जी ने एक बार कहा था मुराद जिस दिन तुम्हारे पैर में काँटा चुभ गया समझ लेना मैं दुनिया छोड़ गया. एक दिन चलते चलते बाबा मुराद शाह जी के पैर में काँटा चुभ जाता है. बाबा जी से अपने मुरशद का विछोड़ा सहा ना गया और वह भी जल्दी ही 28 साल की उम्र 1960 में शरीर छोड़ गए. बाबा मुराद शाह जी ने 24 साल की उम्र में फकीरी शुरू की और 28 साल की उम्र में चोला छोड़ दिया, सिर्फ 4 साल में वली हो जाना बहुत बड़ी बात है.

“ना महंगी मिलती है ना सस्ती मिलती है, यह जो मस्ती है वह मिटाकर हस्ती मिलती है”

बाबा जी हमेशा चाहते थे कि उनकी मज़ार उसी जगह बने जहाँ शेरे शाह जी ने फकीरी की, जहाँ बाबा जी खुद भी रहे. पर उस समय वह सरकारी ज़मीन थी. लोगों ने सोचा कि बाबा जी की मज़ार अगर यहाँ बनाई तो सरकारी लोग मज़ार हटा ना दें, इतने बड़े फ़क़ीर की जगह के साथ अनादर ना हो यह सोच कर लोगों ने बाबा जी की मज़ार शमशान घाट में ही बना दी. बाबा जी जिस औरत को अपनी माँ कहते थे उसे सपने में दर्शन दिए और कहा "मेरी मज़ार वहां क्यों नहीं बनाई जहाँ मैंने कहा था" माता ने कहा “सरकारी लोग आपत्ति कर रहे थे”. बाबा जी ने कहा मेरे जितने भी कपडे और वस्तुएं तुम्हारे घर पड़ी हैं उन्हें एक घड़े में डालकर वहां रखो, और वहां भी मेरी जगह बनाओ, मैं खुद देखता हूँ कौन हटाता है. ऐसे ही हुआ और वहां भी बाबा जी की जगह बनाई गयी जहाँ बाबा जी खुद चाहते थे. इस जगह को आज हम डेरा बाबा मुराद शाह कहते हैं. बाबा मुराद शाह जी की सिर्फ एक ही फोटो थी वह भी उन्होंने फाड़ दी थी मगर उनके भाई ने उस फोटो को जोड़कर दुबारा रखा था. बाबा शेरे शाह जी की दरगाह भी पंजाब (हिंदुस्तान) में फ़िरोज़पुर के पास है.

लाडी साईं जी बाबा मुराद शाह जी के भतीजे थे जिनको बाबा मुराद शाह जी ने खुद चुना था. उनका नाम विजय कुमार भल्ला था और लाडी साईं नाम उनके मुर्शद ने उन्हें दिया था, लाडी साईं जी का जन्म 26 सितम्बर 1946 को हुआ था उनकी उम्र सिर्फ 14 वर्ष थी जब बाबा मुराद शाह जी ने शरीर छोड़ा. जैसे फ़क़ीर ने कहा था इस खानदान में दो भगवान का नाम लेने वाले पैदा होंगे, तो पहले हुए बाबा मुराद शाह जी और दूसरे हुए लाडी साईं जी. एक बार की बात है साईं जी अपनी बुआ के पास कुछ दिन रहने के लिए राजस्थान गए हुए थे, और बुआ जी के बच्चों के साथ खेल रहे थे कि अचानक उनकी आवाज़ बदल गयी, पहले तो बच्चों को मज़ाक लगा पर फिर उन्होंने बुआ जी को बुलाया तो उन्हों ने देखा कि बाबा मुराद शाह जी जैसी आवाज़ आ रही थी. कहते “बहन मेरी मज़ार सूनी पड़ी है, लाडी को कल सुबह पहली गाडी में बिठा देना और वापिस भेज दो”. लाडी साईं जी वापिस नकोदर पहुंचे और खुद ही मज़ार की तरफ चले गये, उनका शरीर तप रहा था और ऐसे लग रहा था जैसे शरीर में से आग निकल रही है और कह रहे थे मुझे फ़क़ीर बनना है. जब उन्हें घर लेकर आए तो उन्हें बुखार हो गया. साईं जी के पिता जी (बाबा मुराद शाह जी के बड़े भाई) बाबा मुराद शाह जी की तस्वीर के पास गये और कहने लगे, आप ये लड़का लेना चाहते हैं तो लेलो पर इसे ठीक करदो. तस्वीर में से आवाज़ आई "लाला मैंने कहा था ना, उस दिन देखूंगा तुम्हे मारते हुए जिस दिन तुम्हारे बेटे तुम्हारे सामने फ़क़ीर बनेंगे, अब नहीं मारना ?" उनके भाई ने कहा मेरी गलती थी मुझे माफ़ करिये, अब यह लड़का आपका है. साईं जी ने ठीक महसूस किया और सो गए.

कुछ साल बीते साईं जी जवान हुए, कहते हैं भगवान् की राह पर चलने के लिए गुरु की ज़रूरत होती है. बाबा मुराद शाह जी की पूरी कृपा और शक्ति थी साईं जी के साथ लेकिन उसको जागृत करने के लिए एक सच्चे सतगुरु की ज़रुरत थी. साईं जी गुरु की खोज के लिए घर से निकल गए. साईं जी कई जगह गए कभी काशी कभी हरिद्वार, और एक बार उन्होंने गात्रा भी गले में डाला, बहुत ढूँढा पर कोई ऐसा ना मिला जो तीसरी आँख खोल सके. फिर एक दिन साईं जी बापू ब्रहम जोगी जी के डेरे नकोदर में पहुंचे. बापू जी गुग्गा जाहर पीर जी की साधना करते थे और गुग्गा जाहर पीर को पूरी तरह पूर्ण थे. साईं जी उनके डेरे जाकर दूर बैठ गए. बापू जी ने लाडी कह कर आवाज़ लगायी, पास बुलाया और पूछा "मुराद शाह बनेगा ?" साईं जी ने कहा जी “हाँ बनूँगा”. बापू जी बोले “ठीक है अब तुझे मुराद शाह बना कर ही भेजेंगे” और कहा, जाओ अपनी माँ से भी आशीर्वाद ले आओ, क्योकि फ़क़ीरी तब तक हासिल नहीं होती जब तक माँ उसे खैर ना डाले। जब साईं जी अपनी माँ के सामने आए तब उन्होंने जोगी जैसा भेस बनाया हुआ था, माँ के लिए वह कितना मुश्किल समय रहा होगा जिसका बेटा हमेशा के लिए पराया होजाना था, और कभी दुबारा घर नहीं आना था, पर फिर भी माँ ने आशीर्वाद दिया और कहा "जा बेटा, अपनी बाप की पग्गड़ी को दाग मत लगाना, फ़क़ीरी करनी है तो करके दिखाना"

बापू जी ने साईं जी को अपना मुरीद बना लिया और अपने पास ही रख लिया. बापू जी ने रोज़ इम्तिहान लिए और साईं जी को पक्का करते गए. बापू जी के पास एक और बच्चा भी रहता था, जिसका नाम था मोहन जो उनका रिश्तेदार था. मोहन भी उनका मुरीद बनना चाहता था और उनकी पीढ़ी में आगे चलना चाहता था. पर चलता वही है जिसे गुरु खुद चुने, और जिसका गुरु के लिए पूरा समर्पण हो. बापू जी रोज़ अपने शरीर पर दवाई लगाते थे क्योंकि एक बार बापू जी ने अपने आप को आग लगा ली थी जब उन्हें विवाह के लिए ज़ोर लगाया गया था. बापू जी अक्सर आवाज़ लगा कर मोहन और साईं जी को पास बुलाते, पहले मोहन को पूछते "तू कौन है ?" मोहन कहता था "मैं आपका बच्चा हूँ". उसमे रिश्तेदारी का घमंड था, बापू जी कहते फिर यह दवाई जो हाथ पर लगी है इसको चाट के दिखाओ. मोहन डर जाता और मना कर देता. बापू जी फिर साईं जी को पूछते "लाडी तू कौन है ?" साईं जी कहते "आपके दर का दरवेश" बापू जी कहते फिर यह दवाई चाट, साईं जी ने चाटने लग जाना, साईं जी को ऐसे लगता जैसे वह आइस क्रीम खा रहे हों.

अक्सर जब भी साईं जी बापू जी के डेरे से बहार जाते तो उनकी आज्ञा लेकर जाते और जब वापिस आते तब बाहर आकर एक आवाज़ देते "बापू मैं आ गया". जब तक बापू जी ने "आजाओ अंदर" नहीं कहना तब तक साईं जी डेरे के बाहर खड़े रहते फिर चाहे रात हो जाए या सवेरा. कभी कभी बापू जी गर्मियों के दिनों में लकड़ी की सीढ़ी छत से लगा लेते और नीचे रेत बिछवा देते. रेता गर्मी के कारण गर्म होता था. फिर उन्होंने पहले मोहन को आवाज़ लगानी और पूछना "मोहन तू कौन हैं ?". मोहन ने कहना "आपका बच्चा" बापू जी ने कहना फिर सीढ़ी चढ़, पर उल्टी चढ़नी है. मोहन ने कहना बापू जी मैं गिर जाऊंगा और मना कर देना. फिर बापू जी ने साईं जी से पूछना "लाडी तू कौन है ?" साईं जी ने कहना "आपके दर का दरवेश", फिर बापू जी कहते यह सीढ़ी चढ़ लेकिन उल्टी. साईं जी ने पहले अपने गुरु (बापू जी) को माथा टेकना फिर पौड़ी के पीछे से टाँगे फंसा फंसा कर चढ़ने लग जाते. जब ऊपर तक पहुँच जाते तब बापू जी लात मारते और साईं जी रेत पर गिर जाते. जब साईं जी उठने लगते तब बापू जी कहते पड़ा रह. साईं जी अपने गुरु की आज्ञा समझ कर लेटे रहते, लोगों को देख कर ज़ुल्म लगता था पर साईं जी को ऐसा लगता जैसे वह ठन्डे घास पर पड़े हों.

साईं जी एक बड़े ज़ैलदारों के परिवार से थे, और एक बार गुरूर में आकर वह किसी से यह बात कह बैठे, तब बापू जी ने चौंक में कांच की बोतल पत्थर पर मारी, कांच बिखर गया. बापू जी कहते चल लाडी आज तेरा नाच देखें. लोगों ने बापू जी से माफ़ी देने के लिए प्राथना की पर बापू जी बोले मैं इस में से ज़ैलदारी की बू निकाल रहा हूँ. साईं जी ने हुकम माना और नाचते रहे। नाच नचाने वाला भी कैसा होगा और नाचने वाला भी कैसा होगा.

“गुरु अगर ज़हर भी दे तो करूँ शुक्राना, कोई अपना समझ कर ही सज़ा देता है“

फकीरी बहुत मुश्किल है कोई लाखों में से एक ही गुरु के रास्ते पर संपुर्ण चल सकता है. और जो चल जाता है वह सब पा जाता है. ऐसे ही समय निकलता रहा एक बार साईं जी की नज़र थोड़ी कमज़ोर हो गयी और एक डॉक्टर उनका चश्मा बनाने के लिए आ गया, बापू जी ने डॉक्टर को कहा "मशीन बाहर ले जाओ, यह आंख यार की है उसकी मर्ज़ी है इसे देखने दे, उसकी मर्ज़ी है इसे अंदर से देखने दे. साईं जी ने ऐसी निभाई अपने मुरशद के साथ कि शायद ही आज के ज़माने में कोई निभा सके। एक बार सर्दियों की बात है, सुबह 5 बजे बापू जी ने साईं जी से पूछा, कि कहीं आस पास गन्ने भी होते हैं क्या, आज खाने का दिल हैं। साईं जी ने एक पतला चोला डाला हुआ था, साईं जी उसी समय पैदल बाहर निकल गए और बहुत दूर तक खेतों की तरफ चले गए। कुछ घंटों के बाद ठण्ड से ठिठुरते हुए गन्ने लेकर वापिस लौटे। बापू जी ने साईं जी को गरम चाय पिलाई और आराम करने को कहा. फिर कुछ दिन बाद बापू जी ने 1 दिन के लिए बाहर जाना था, वह देखना चाहते थे कि जिस तरह साईं जी उनके सामने उनकी बात मानते हैं, क्या उनके सामने ना होने पर भी उसी तरह रहते हैं कि नहीं, दरबार में एक जगह कीड़े मकौड़ों का ढेर लगा हुआ था, बापू जी ने हाथ से छोटा सा इशारा उस तरफ किया और कहा बैठो मैं आता हूँ। साईं जी ने देखा उस तरफ तो कीड़े हैं, लेकिन वह वहीँ पर बैठ गए, और पूरा दिन बैठे रहे जब तक बापू जी वापिस नहीं आए, जब बापू जी वापिस आए तो उन्हों ने साईं जी को गले से लगा लिया, कहा जाता है कि गुरु अपने मुरीद को सुई के नक्के में से निकालता है, तब जाकर मुरीद भगवान के रुतबे पता है।

साईं जी 16 साल बापू जी के पास रहे और उनकी संपुर्ण आज्ञा का पालन करके उनके सबसे प्यारे बन गए, एक बार बापू जी ने ज़मीन के 30 फुट नीचे कुआँ खुदवाया उसमें बैठने की जगह बनवाई. उन्होंने पहले मोहन से पूछा "कूएँ में बैठेगा ?" मोहन तो पहले ही इस तरह के कामों से डरता था, उसने मना कर दिया. जहाँ गुरु पर भरोसा हो वहां डर नहीं रहता यह इम्तिहान कोई ज़ुल्म के लिए नहीं बल्कि परख के लिए होते हैं. फिर साईं जी से पुछा कुँए में बैठेगा ?. साई जी ने कहा जी हाँ बैठूंगा. बापू जी ने कुँए में सबसे नीचे साईं जी को बैठाया और 20 फुट पर खुद बैठे और ऊपर से कुआँ बंद कर लिया. कुछ दिन बीच में ही रहे फिर बाहर निकले, फिर बापू जी अकेले ही कुँए में बैठ गए और ऊपर से बंद कर लिया. दिन निकलते रहे पर बापू जी बाहर ना आए. फिर कुछ महीने निकल गए पर बापू जी बाहर ना आये, पर साईं जी बापू जी को याद करते रहते और उसी तरह अनुशासन से रहते जिस तरह बापू जी के सामने रहते थे. सवा साल बाद बापू जी बहार निकले उस दिन मेला लगा हुआ था, बापू जी अपनी मौज में आ गए और साईं जी को लाडी कहकर आवाज़ लगायी, पास बुलाया और घुंगरू देते हुए कहा "शेरनी का एक ही बच्चा होता है जो लाखों पर भारी होता है, कहते तू बन गया मुराद शाह, और आज के बाद दुनिया तुझे लाडी शाह के नाम से जानेगी, जा अब अपने मुरशद बाबा मुराद शाह की जगह पर बैठ और लोगों की मुरादें पूरी कर"

“जो बात दवा से बन ना सकी वह बात दुआ से होती है, जब कामल मुरशद मिलता है फिर बात खुदा से होती है”

साईं जी ने फिर बाबा मुराद शाह डेरे का निर्माण शुरू करवाया और खुद भी वहीँ रहने लगे, कुछ साल बाद एक बहुत ही खूबसूरत दरबार बना, साईं जी के पास दरबार का नक्शा बहुत साल पहले ही बना हुआ था कि आने वाला समय ऐसा होगा. साईं जी हर साल बाबा मुराद शाह जी का उर्स मनाते और कव्वाली भी होती. कव्वाली की महफ़िल हमेशा एक मलेरकोटला के कव्वाल 'करामत अली एंड पार्टी' ही शुरू करते. जिनकी पीढ़ी बाबा मुराद शाह जी के समय से चलती आ रही है. आज भी उन्ही की पीढ़ी कव्वाली की महफ़िल शुरू करती है. एक बार साईं जी ने पैसों की भरी चादर बाँध कर उन्हें दी और कहा करामात अली तेरा मेरा हिसाब पूरा. क्योंकि बाबा मुराद शाह जी ने एक बार कव्वालों से वादा किया था की तुम्हारा हिसाब तुम्हारे बेटों और पोतों को लाडी शाह जी पूरा करेंगे. इसी लिए साईं जी ने कितने गुना करके उन्हें दिया.

एक बार की बात है, बाबा मुराद शाह जी का मेला आने वाला था, साईं जी कुलदीप मानक (पंजाबी सिंगर) के पास गए और कहा कि हमारे बाबा जी का मेला आने वाला है, और उन्हें गाने के लिए आमंत्रण दिया। कुलदीप जी ने कहा 3500 लगेंगे, जो उस समय के हिसाब से ज्यादा थे। साईं जी ने कहा ठीक है ले लेना, बहुत कम लोगों को तब साईं जी के रुतबे के बारे में पता था। कुलदीप जी ने सोचा, पता नहीं यह पैसे दे भी पाएंगे या नहीं, और मज़ाक में कह दिया कि बाबा जी 3500 की तो आप भैंस भी खरीद सकते हो, साईं जी ने कहा आप मेले पर आओ फिर बात करते हैं, जब वह मेले पर आए तो साईं जी ने इतने नोट उनके ऊपर वारे कि मानक जी झुक के माथा टेकने लगे और कहा साईं जी बस करो, बक्श दो और माफ़ी मांगी, उस दिन ऐसे बक्शे की आज तक मानक मानक हो रही है दुनिया में ।

“आदमी आदमी को क्या देता है, वह तो बहाना है खुदा देता है, जब वह देता है तो बेहिसाब देता है और जब लेता है तो चमड़ी उतार लेता है”

पूर्ण शाह कोटी (मास्टर सलीम के पिता जी) भी साईं जी के पास अक्सर आते रहते थे, 1975 में वह साईं जी के साथ जुड़े और एक गहरा प्यार पड़ गया, साईं जी का भी उनके साथ बहुत प्यार था, पूर्ण जी ने जब शादी की तो सबसे पहले साईं जी के पास माथा टेकने आए, और जब जाने लगे तब साईं जी ने कहा कि “तुम्हारे एक लड़का होगा जिसका नाम तुम सलीम रखना, जिसको सारी दुनिया में शोहरत मिलेगी”, हुआ भी ऐसा ही, मास्टर सलीम ने संगीत की दुनिया में बहुत नाम कमाया, सलीम जी के गीत पहले इतने नहीं चले थे, तब साईं जी ने एक इशारा दिया था और कहा "सलीम जय माता की किया करो" सलीम जी ने अपनी माँ से पूछा कि साईं जी ने ऐसा क्यों कहा, मुझे समझ नहीं आया। उनकी माँ ने कहा, साईं जी ने तुझे माता की भेंट गाने को कहा है। सलीम जी ने माता की भेंटों की एक एल्बम निकाली जिस के बाद उन्हें बहुत कामयाबी और पर्सिधि मिली। फिर कुछ सालों बाद प्रोग्राम आने अचानक बंद हो गए और उनका काम बहुत कम होगया, वह अपने माता पिता के साथ साईं जी के पास गए और बैठ गए, साईं जी ने पूछा "सलीम क्या हुआ", सलीम जी ने कहा "साईं इतना कुछ चला कर, इतना कुछ दिखा कर, एक दम अँधेरा हो गया" साईं जी ने कहा "डर मत कभी कभी अँधेरे के बाद ऐसा उजाला आता है जो फिर कभी अँधेरा होने ही नहीं देता " फिर साईं जी ने पूछा कहाँ गाना है बता, पर सलीम जी ने कहा साईं जी जहाँ आप मौका दें। साईं जी ने कहा ठीक है फिर जाओ और गाओ गाओ गाओ, और कुछ दिन बाद सब फिर पहले जैसा हो गया। फिल्मों में भी मौका मिला, बड़े बड़े प्रोग्राम भी मिलने लगे और फिर आस्मां को छूह लिया। पूर्ण शाह कोटी जी को भी साईं जी ने कहा था कि तुझे फकीरी मिलेगी और कुछ साल बाद वह भी एक पीरों की एक जगह पर सेवा में लग गए, जहां वह दिन रात सेवा करते हैं।

कहते हैं गुरु ने जिसे चुना हो वह खुद एक दिन अपने गुरु के पास पहुँच ही जाता है, साईं जी ने भी जिनको चुना वह भी ऐसे ही दरबार आए जिनका नाम है गुरदास मान (विष्व प्रसिद्ध गायक और एक बहुत ही नेक दिल इंसान). एक बार की बात है सुरिंदर शिंदा जी और पूर्ण शाह कोटी जी साईं जी के पास बैठे थे. साईं जी ने सुरिंदर जी को कहा "वह जो नौजवान डफली सी बजाता घूमता है वह कहाँ है", फिर कहा "तुझे तो मिलता ही होगा, उसे कहना सारी दुनिया में तो तू घूम रहा है एक जगह वह भी है जहाँ तुम्हारी इंतज़ार हो रही है".

एक बार 1982 में फिल्म "ऊचा दर बाबे नानक दा" की शूटिंग पर शिंदा जी ने गुरदास मान जी के साथ बात की, कि आपको हमारे साईं जी बहुत याद करते हैं नकोदर वाले. गुरदास जी ने निम्रता से कहा जब उनकी मर्ज़ी होगी तब ज़रूर चलेंगे. फिर एक दिन गुरदास मान जी को सपना आया और उन्होंने एक दरबार देखा जहाँ तालाब बना हुआ था और संगत का मेला लगा हुआ था. सुबह उठे तो शिंदा जी का फ़ोन आया कि आज वीरवार है अगर आपके पास समय हो तो आज चलें ?. मान साहब कहते जी चलते हैं वैसे भी आज मैंने एक सपना देखा. शिंदा जी रास्ते में समझा रहे थे कि साईं जी अगर कुछ दें तो मना मत करना स्वीकार कर लेना. जब दरबार पहुंचे तब गुरदास मान जी ने देखा कि यह तो वही दरबार है जो उन्होंने सपने में देखा था. गुरदास मान जी साईं जी के पास बैठे फिर चलते चलते बातें हुई. साईं जी कहते “गुरदास फिर क्या देखा ?” गुरदास जी कहते यह दरबार तो मैंने सपने में ही देख लिया था. साईं जी बोले बस बस ज्यादा परदे नहीं खोलते. फिर साईं जी ने अपना चश्मा उतार कर गुरदास जी के लगाया और पुछा देखना ठीक है ? मान साहब कहते थोड़ा ढीला है, साईं जी ने उसी समय वापिस खींच लिया और कहा जिस दिन फिट आगया उस दिन ले लेना. जो एक बहुत बड़ा इशारा था.

फिर 5 साल बीत गए गुरदास जी नकोदर नहीं आये और अपने काम में व्यस्त होगए. उस समय गुरदास जी को बहुत चिंता रहती थी क्योंकि उनकी पत्नी मंजीत मान जी का Thyroid के कारण वजन बहुत बढ़ गया था. उन्होंने बहुत डॉक्टरों के पास दिखाया, हर जगह इलाज करवाया पर कोई हल ना निकला, फिर गुरदास जी के एक दोस्त दविंदर शायर ने खन्ना शहर से फ़ोन किया और बताया कि वह एक बहुत पहुंचे हुए पंडित को जानते हैं और आप आ जाओ. गुरदास जी और मंजीत जी उस समय पटियाला रहते थे और वह अगले ही दिन खन्ना के लिए निकल गए पहुँचते ही पंडित को मिले, और पंडित ने बताया कि उनपर तो राहु केतु का चक्कर है और बहुत सारे उपाय लिख दिए, फिर वह निराश होकर वापिस पटियाला जाने लगे तो गुरदास जी बोले मंजीत एक जगह और रह गयी वहां भी चलें, जहाँ 5 साल पहले गए थे नकोदर ?. मंजीत जी कहते चलो, जाते जाते गुरदास जी अपने मन में सोच रहे थे कि वह बाबा जी को क्या अर्पित करेंगे, क्यों कि जल्दी जल्दी में उन्होंने कोई प्रसाद भी नहीं लिया था. गुरदास जी ने एक घड़ी बांधी हुई थी जिसमें छोटे छोटे हीरे लगे हुए थे, उन्होंने मन में सोचा कि मैं घडी देदूँगा, गुरदास जी अभी रास्ते में ही थे कि नकोदर में साईं जी के साथ एक लड़का और शरदा जी बैठे थे, साईं जी उनसे पूछ रहे थे कि "आपने कभी हीरों वाली घड़ी देखी है ?" शरदा जी बोले आपकी लीला है आप कुछ भी दिखा सकते हो, साईं जी कहते चलो फिर आज आपको हीरों वाली घडी दिखाते हैं. उस समय मंढाली वाले बाबा जी साईं जी को मंढाली के मेले पर आने का निमंत्रण देने आए और बोले साईं जी हमारे मेले पर सारे कलाकार आ चुके हैं लेकिन अभी तक गुरदास नहीं आया. साईं जी कहते गुरदास भी आने वाला ही है. मंढाली वाले बाबा जी को पूरी बात का पता नहीं था कि साईं जी ने क्या कहा.

फिर मंढाली वाले बाबा जी चले गए और गुरदास मान जी दरबार पहुंचे, प्रवेश किया, साईं जी का मुँह दूसरी तरफ था, गुरदास जी उनको माथा टेकने लगे तो साईं जी बोले पहले बाबा मुराद शाह को माथा टेक कर आ. गुरदास जी ने माथा टेका और साईं जी के पास आकर बैठ गए. शरदा जी बोले, साईं जी गुरदास हमारे पास एक ही बार आया है फिर नहीं आया. साईं जी बोले "यह हमारे पास कहाँ से आते, यह तो राहु केतु के चक्करों में पड़े हैं" गुरदास जी रोना शुरू हो गए और मन ही मन में बोल रहे थे "मुझे बख्श दो, मुझे बख्श दो" साईं जी अपने मुँह से बोल रहे थे "जा बख्श दिया , जा बख्श दिया". गुरु वही है जो बिना बोले बात जाने. इसीलिए बड़े कहते हैं ‘पानी पीये छान के और गुरु बनाइये जानके’. गुरदास जी ने उस दिन देख लिया कि इनसे ऊपर कुछ नहीं, उनको साक्षात् रब की तस्वीर साईं जी में दिखी. साईं जी ने अपनी जेब में से पैसे भर कर निकाले और गुरदास जी को दिए और फिर उनसे पूछा “मंढाली मेला है, वहां गा जाओगे?”. गुरदास जी बोले जो आज्ञा. फिर गुरदास जी जाने लगे तो साईं जी ने आवाज़ लगायी और कहा "घडी" ? गुरदास जी मुस्कुराए घडी उतारने लगे, साईं जी बोले नहीं अपने ही बांधी रख. गुरदास जी कहते नहीं साईं जी आप स्वीकार करो, साईं जी कहते अपने ही बांधी रख, बोले "हाथ पर बंधी और दिल पे बनी एक ही बात है " दिल पर तो बन चुकी थी, गुरदास जी ने फिर निवेदन किया तो साईं जी ने कहा ठीक है फिर बाँध लेते हैं. भगत की बंधी फिर गुरु कैसे छुड़ाए.

“तेरे घर का पता खोजने वाले खुद लापता हो गए देखते देखते, कल जिनके मुक़द्दर में कुछ भी ना था बादशाह हो गए देखते देखते”

गुरदास जी जब भी अपनी पत्नी मंजीत जी के साथ दरबार आते तो साईं जी अक्सर उन्हें कहते “चंडीगढ़ कोठी डाल लो, गाओं में उड़ती है धूड़” गुरदास जी तब पटिआला रहते थे, उन्हें समझ नहीं आता था कि साईं जी ऐसा क्यों कहते हैं। फिर एक दिन साईं जी ने उन्हें पास बिठाया एक कागज़ लिया उस पर खुद लिखा, "गुरदास मान रेजिडेंट ऑफ़ चंडीगढ़, नेशनल अवार्ड विनर, साहिल किनारा" और उन्हे दे दिया। उस समय कोई भी चीज़ हासिल नहीं थी, पर वह कागज़ नहीं एक आशीर्वाद था, फिर कुछ साल बाद उन्होंने सोचा कि एक घर लिया जाए, जब उन्होंने ढूंढा तो चंडीगढ़ में उन्हें एक घर पसंद आया, उन्होंने साईं जी से पूछा कि “बाबा जी एक घर मिल रहा है”, साईं जी ने कहा फिर ले लो, और अपनी जेब में हाथ डाला, पैसे निकाले और उनकी झोली में डाल दिए, जिसे गुर प्रसाद कहते हैं, उस घर का नाम था साहिल किनारा, जिसका मतलब गुरदास जी को बाद में पता चला कि "चंडीगढ़ कोठी डाल लो, गाओं में उड़ती है धूड़" का क्या मतलब था, और कुछ समय बाद उन्हें नेशनल अवार्ड से भी नवाज़ा गया।

“ज़र्रे को महज़ क़तरे से दरिया बना दिया। मुझको तेरे करम ने साईं, क्या से क्या बना दिया”

नकोदर की एक दुकान का वाक्य है, साईं जी उस दुकान पर भागे भागे गए, दुकान वाले उठ कर खड़े होगए कि साईं जी आए हैं, साईं जी कभी इधर जाएँ और कभी उधर जाएँ, फिर कहने लगे ठीक है हो गई गाड़ी सीधी, हो गई गाड़ी सीधी, कहकर वापिस चले गए, दुकान वालों को समझ नहीं आया कि साईं जी भागे भागे क्यों आए थे और क्या कहकर चले गए। थोड़ी देर बाद दुकानदार को उसकी बेटी और जमाई का अमेरिका से फ़ोन आया और बताया कि उनका एक्सीडेंट हो गया था, गाड़ी ने 6 पल्टियाँ खाई और सातवीं में अपने आप सीधी हो गयी और बताया कि एक खरोच भी नहीं आई। उस दुकानदार की आखों में आंसू आ गए और साईं जी का मन में शुक्रिया किया। साईं जी ने जिसको भी दिया झोलियाँ भर कर ही दिया है। साईं जी के भतीजे इंग्लैंड में रहते हैं और उन्होंने साईं जी को भी आने का निमंत्रण दिया. एक बार साईं जी उनके पास इंग्लैंड गए हुए थे, नुसरत फ़तेह अली खान (पाकिस्तान के प्रसिद्ध सूफी कव्वाल) भी वहां आए हुए थे| साईं जी ने उनके पास बुलावा भेजा कि वह कव्वाली सुनना चाहते हैं| नुसरत ने बहुत पैसे मांग लिए और कहा मैं इससे कम नहीं लूंगा| साईं जी ने कहा ठीक है ले लेना आ जाओ| जब नुसरत गाने लगा तो साईं जी ने इतने पैसे उनके ऊपर वारे कि नुसरत घुटनों तक भर गया, जब प्रोग्राम खत्म हुआ तब साईं जी ने पैसे निकाले और जितने नुसरत ने मांगे थे वह भी देते हुए कहा यह लो तुम्हारी फीस, नुसरत हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और कहने लगा कि बाबा जी बहुत दे दिया आपने, मेरे पास तो इतनी गठरियाँ ही नहीं हैं इतने पैसे बाँधने के लिए, बस करो बख्शो. और जब भी नुसरत को पंजाब का कोई कव्वाल किसी भी देश में मिलता तो वह साईं जी का ज़िकर जरूर करता कि आज के ज़माने में ऐसे फ़कीर नहीं देखे. फ़कीर मांगने से कुछ नहीं देता, बिन मांगे सब दे देता है.

“जितना दिया सरकार ने मुझको, उतनी मेरी औकात नहीं। यह तो करम है उनका वरना, मुझमे तो कोई ऐसी बात ही नहीं”

साईं जी ज्यादा तर वक़्त हीर ही पढ़ते थे, वारिस शाह जी वह फ़क़ीर थे जिन्होंने हीर ग्रन्थ लिखा था. जिसको हर फ़क़ीर ने पढ़ा, जिसमे सच्चे इश्क़ के जरिये सीधा रब से जुड़ती तार की बात की गयी है. एक बार साईं जी ने हीर की एक किताब ली, जिसके पहले पन्ने पर उन्होंने लिखा था "बाबा मुराद शाह जी की अपार कृपा रहेगी - सेवादार गुलाम" साईं जी अपने आप को गुलाम लिखते थे. गुरदास मान जी एक बार जाने लगे तो साईं जी ने वह हीर किताब गुरदास जी को दी और कहा "इसे बीच बीच में से पढ़ना, क्योंकि जिसने पढ़ली हीर वह हो गए फ़क़ीर" फिर एक दिन गुरदास जी रियाज़ कर रहे थे, गुरदास मान जी रियाज़ के समय ज्यादा तर वक़्त हीर ही गाते हैं, तो मंजीत मान जी का फ़ोन आया और उन्होंने पूछा "हम फिल्म वारिस शाह बना लें ?" गुरदास मान जी ने देखा उनके हाथ में हीर की किताब खुली थी जिसमे उस समय वही पन्ना खुला हुआ था जिस पर साईं जी ने लिखा था बाबा मुराद शाह जी की अपार कृपा रहेगी सेवादार गुलाम, गुरदास मान जी वह इशारा समझ गए कि यह गुरु का आशीर्वाद है और कहा मंजीत शुरू कर दो.

फिर एक दिन फिल्म के लिए हीर के बैंत रिकॉर्ड करने थे, चंडीगढ़ जिसके लिए सुबह 11 बजे का समय रखा गया. गुरदास जी किसी को बिना बताए सुबह सुबह नकोदर चले गए साईं जी के पास, पीछे सभी को गुस्सा चढ़ गया क्योंकि पहले रिहर्सल होनी थी फिर रिकॉर्डिंग और समय कम था, साईं जी सब कुछ जानते थे, जब गुरदास जी साईं जी के पास पहुंचे तब साईं जी ने कहा "गुरदास फ़क़ीर वह होता है जो चाहे सो करे, और जो चाहे सो करावे" गुरदास जी ने आशीर्वाद लिया और चंडीगढ़ पहुंचे. उनको रिहर्सल के लिए कहा गया और पन्ने दिए जहाँ से देख कर रिकॉर्डिंग करनी थी. गुरदास जी ने बिना रिहर्सल, बिना पन्ने पढ़े सारी हीर रिकॉर्ड करदी, सब देख कर हैरान हो गए कि कैसे उन्होंने बिना देखे सारी हीर रिकॉर्ड कर दी, और जो गाया उसे दुबारा गाने की जरुरत नहीं पढ़ी. एक तरह से सारी हीर ही याद करवा दी थी साईं जी ने. फिर जब फिल्म बन गयी सब कुछ हो गया तब साईं जी ने कहा "गुरदास इतने बड़े फ़क़ीर की यादगार बना देना भी बहुत बड़ी बात होती है, रब तेरे ते किर्पा करे"

जितना प्यार साईं जी सभी को करते हैं, उतना ही प्यार साईं जी के मानने वाले भी साईं जी को करते हैं. एक बार एक गरीब औरत साईं जी के लिए कम्बल लेकर आई, साईं जी ने कहा "वापिस ले जाओ, नहीं लेना" वह औरत कम्बल वापिस लेकर घर चली गयी, एक मुरीद ने साईं जी से पूछा कि साईं जी, वह औरत इतनी श्रद्धा के साथ आई थी आपने उसका कम्बल स्वीकार क्यों नहीं किया, साईं जी बोले “उसके अपने बच्चे ठण्ड में सोते हैं, और मेरे लिए कम्बल लेकर आई थी, मैं कैसे ले सकता था”। साईं जी का मुरादें देने का भी अपना ही एक ढंग था, हमेशा कोई छोटा सा बहाना बना कर लोगों को बहुत कुछ दे देते थे। आज के ज़माने में कुछ लेने के लिए बहाने बनाने पड़ते हैं, पर साईं जी देने के लिए बहाने बनाते थे। बहुत पुरानी बात है सरदूल सिकंदर (पंजाबी सिंगर) को बहुत समय से चाहत थी की उनके घर एक बेटा पैदा हो। एक बार वह अमेरिका से बाबा मुराद शाह जी की फोटो बनवा कर दो कप लेकर आए, एक कप उन्होंने साईं जी को दे दिया और एक कप खुद रख लिया। एक दिन साईं जी ने सरदूल जी को फ़ोन किया बोले "सरदूल यार वह कप तो कोई उठाकर ही ले गया, ऐसा कर जो कप तेरे पास है वह देजा" सरदूल जी बोले साईं जी पता नहीं कब दुबारा अमेरिका जाना होगा और कब नया कप लेकर आऊंगा। साईं जी बोले “हम कौनसा फ्री मांग रहे हैं, कप दे जाना और बेटा लेजाना”। सरदूल जी अक्सर मज़ाक में अपने बेटे की तरफ इशारा करके बताते हैं कि यह कप के बदले मिला हुआ है कप जैसा लड़का।

हर इन्सान की तक्दीर भगवान ने पहले ही लिखी हुई है। जिसमे पुराने जन्मों का तप भी मिला होता है। फ़क़ीरी तो साईं जी की पिछले कईं जन्मों से ही चली आ रही थी। गुरदास जी के जुड़ने का भी उन्हें पहले ही पता था। गुरदास जी बचपन से ही भगवान में यकीन रखने वाले और भगवान को मानने वाले इंसान थे, और बिना पाठ पूजा किये खाना नहीं खाते थे। जब स्कूल में गए तब भी उन्हें संगीत का बहुत शौंक था। और टेबल पर ही कुछ न कुछ बजाते रहते। कॉलेज में उन्होंने एक डफली खरीदी, फिर उसके साथ जो गीत उन्होंने कॉलेज में लिखे थे, जैसे "सज्जना वे सज्जना" और "पीढ़ तेरे जान दी" गाते रहते। गुरदास जी की जिंदगी का एक सुनने वाला किस्सा है। एक बार उनके कॉलेज का ट्रिप पिंजोर गया, जहाँ पर सभने उनसे गाने की फरमाइश की, उन्होंने अपनी डफली उठायी और गाना शुरू कर दिया, वहां दिल्ली से भी एक बस आई हुई थी, वह भी उनका गाना सुनने लग पड़े और सबने उन्हें कुछ न कुछ देना शुरू कर दिया और उनकी जेबें भर दी। फिर सब आगे की और चल पड़े, गुरदास जी अकेले ही बैठ गए और अपना सामान और डफली बैग में डालने लगे, तभी एक फ़क़ीर ने आवाज़ लगायी, और गाकर कहा "क्यों दूर दूर रहने हों हज़ूर मेरे कोलों, दस् होया की कसूर मेरे कोलों"। गुरदास जी वहीँ रुक गए, उनके पास गए और जो भी उनकी जेब में था उनके चरणों में अर्पित कर दिया। फ़क़ीर को उनके दिल की सफाई का एहसास हुआ और बोले "दिल के बाज़ार में दौलत नहीं देखी जाती, प्यार हो जाए तो सूरत नहीं देखी जाती, एक तबसम पे निछावर करूँ दोनों जहाँ, माल अच्छा हो तो कीमत नहीं देखी जाती" फिर बोले "उठा कर जेब में डाल ले, जा तुझे रेहमतें दी, जा तुझे बरकतें दी। वह पीरों फ़क़ीरों का आशीर्वाद ही था जो उन्हें रब जैसा मुरशद मिला, फ़क़ीरी मिली, नाम मिला और शौहरत मिली।

“खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार। जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार”

कोई लाखों में से एक ही गुरु का पक्का मुरीद बनता है, जैसे गुरदास मान जी ने बनके दिखाया और निभाया. एक बार की बात है गुरदास जी साईं जी के पास बैठे थे उस समय उनका ‘बूट पॉलिश’ वाला गाना बहुत मशहूर हुआ था, साईं जी कहते "क्या बात गुरदास, सारा दिन टीवी पर बूट पॉलिश वाला गाना ही चलता रहता है " गुरदास जी बोले साईं जी आपकी कृपा है. साईं जी बोले "नहीं गुरु रविदास जी ने तेरे पर बहुत कृपा की है". साईं जी ने कहा याद है वह लड़का जिसके साथ तू फोटो खिंचवा कर आया है, एक बार मुल्लांपुर गांव में गुरदास मान जी का प्रोग्राम हुआ था. प्रोग्राम के बाद बहुत लोग फोटो खिंचवा रहे थे, एक बूट पॉलिश करने वाला लड़का जिसके कपडे फटे हुए थे वह भी फोटो खिंचवाना चाहता था, लेकिन उसे सेवादार आगे आने नहीं दे रहे थे. गुरदास जी की नज़र जब उस पर पड़ी तो उन्होंने बोला कि इसे आने दो. आगे रस्सियां लगी हुई थी गुरदास जी ने कहा "रस्सियां खोल कर स्टेज पर आजा" लड़का स्टेज पर आया उसने अपनी बूट पॉलिश वाली पेटी नीचे रखी तो गुरदास जी बोले "ना नीचे मत रख, जिस तरह मैंने अपनी डफली सीने से लगा के रक्खी है ऐसे ही रखा कर, रोटी रोज़ी है, ना जाने किस भेस में नारायण मिल जाये" उस बच्चे ने फोटो खिंचवाई और गुरदास जी ने जस्सी को कहा कि फोटोग्राफर को पैसे देदेना जिस से बच्चे को फोटो मिल जाए. वह बच्चा बहुत खुश हुआ, साईं जी कहते जिस बच्चे के साथ तू फोटो खिंचवा कर आया है वह बच्चा गुरु रविदास जी का है और उन्होंने तुझे आशीर्वाद दिया है.

“औरों को जो भी मिला अपने मुक़द्दर से मिला है, मुझे तो अपना मुक़द्दर भी तेरे दर से मिला है”

साईं जी की हर बात में एक रमज़ होती थी, एक बार केसरी पगड़ी बाँध कर एक सरदार आया और माथा टेकने लगा, साईं जी ने कहा "ना, माथा नहीं टेकना". उसने कहा पर साईं जी मैं तो पूरी श्रद्धा के साथ आया हूँ, साईं जी ने कहा "यह केसरी निशान हमारे दाता गुरु गोबिंद सिंह जी का है जिन्होंने 4 बेटे वारे, पांचवीं मां वारी, छठा बाप वारिया और सातवां आप वारिया. इस निशान को हमने झुकाना नहीं है अगर माथा टेकना हो तो किसी और रंग की पगड़ी बांध कर आ जाना." साईं जी एक ऐसे फ़क़ीर थे जो हर किसी से प्यार करते थे चाहे दर पर आया कोई सव्वाली हो या कोई जानवर, एक बार साईं जी के शरीर पर एक कीड़ा चढ़ा जा रहा था. एक पास खड़े आदमी ने देखा और कुछ आस पास देखने लगा उसे मारने के लिए. साईं जी कहते “तुम क्या चाहते हो मैं इसे मार दूँ, यह भी उसका जीव है जिसकी जान लेने का हक़ हमें नहीं है”.

साईं जी की तरह लोग भी साईं जी से बहुत प्यार करते थे, एक बार नकोदर का एक परिवार साईं जी को शादी पर आने के लिए निमंत्रित करके गया. शादी वाले दिन उनके घर सांप निकल आया, घर वालों ने सांप को पकड़ के दूर छोड़ दिया. अगले दिन साईं जी के पास गए और बोले साईं जी आप क्यों नहीं आये. साईं जी कहते "आपने तो मुझे मार ही देना था", मैं तो आया था पर आप लोगों ने बाहर निकाल दिया. उनकी लीला कोई ही समझ सकता है. एक बार एक औरत साईं जी के पास चली आ रही थी, साईं जी ने शरदा जी से कहा यह तो वही औरत है जो लड़का मांग कर गयी थी पिछले साल. औरत ने साईं जी को नमस्कार किया, साईं जी ने पूछा माता लड़का हो गया था ? औरत बोली बाबा जी लड़का तो हो गया था पर थोड़ा सा पिलपिला है. साईं जी बोले जैसे केले चढ़ाए थे वैसा लड़का हो गया. साईं जी अक्सर एक ही नुक्ते में पूरी बात कर देते थे.

गुरदास मान जी के दो एक्सीडेंट भी हुए पहला 2001 में और दूसरा 2007 में दोनों ही जनवरी में हुए, पहले एक्सीडेंट में माथे की दायीं तरफ लगी और दुसरे एक्सीडेंट में माथे की बायीं तरफ लगी. गुरदास जी कहते हैं शायद मालिक ने कोई तराजू बराबर करना था. या कोई भार उतारना था. गुरदास मान जी का पहला एक्सीडेंट 9 जनवरी 2001 को हुआ, मान साहब अपने ड्राइवर के साथ चंडीगढ़ से नकोदर की तरफ चले थे कि रूपनगर के पास एक ट्रक के साथ गाडी का एक्सीडेंट हो गया जिसमे उनके ड्राइवर तेजपाल की मौत हो गई थी. उसदिन पहली बार तेजपाल ने गुरदास जी को बेल्ट लगाने के लिए कहा था, जिसके थोड़ी ही देर बाद एक्सीडेंट हो गया. साईं जी ने गुरदास जी के ड्राइवर को पहले ही कह दिया था कि यह गाडी उस पर भारी है, इसको दो दिन के लिए दरबार छोड़ जाए. फिर गुरदास जी प्रोग्राम के लिए कनाडा चले गए और जाने से पहले अपने ड्राइवर को कह गए कि गाडी दरबार छोड़ आना. पर तेजपाल गाड़ी लेकर अपने दोस्तों के साथ दिल्ली चला गया और कुछ दिन बाद अपने दोस्तों के साथ अमृतसर के लिए निकल पड़ा, गाडी में पहले उन्होंने शराब पी फिर सफर शुरू किया. रास्ते में जब जालंधर पहुंचे तब याद आया कि साईं जी ने गाडी छोड़ जाने को कहा था. जब वह नकोदर पंहुचा तो गाडी दरबार के बहार खड़ी की, अंदर गया और साईं जी को बोला मैं गाड़ी छोड़ने आया हूँ. साईं जी ने पुछा "गाडी में शराब भी पड़ी है ?" अब साईं जी को कौन झूठ बोले, तेजपाल ने कहा हांजी पड़ी है. साईं जी ने कहा "गाडी छोड़ने आया है कि अपने दोस्तों के साथ पिकनिक मनाने आया है" मतलब गाडी छोड़नी थी तो पहले ही छोड़ जाता. फ़क़ीर अपनी जुबान के पक्के होते हैं. वह उस मौके को संभालना चाहते थे पर नहीं संभला. फिर 09-01-2001 को जब एक्सीडेंट हुआ तो गाड़ी ने 3 पल्टियाँ खाई जिसमे ड्राइवर तेजपाल की मौत हो गई थी. गुरदास जी को कुछ लोगों ने निकाला और हस्पताल लेकर गए. गुरदास जी बताते हैं कि उन्हें लगा था जैसे दुनिया से जाने का समय आ गया पर साईं जी ने बचा लीया, कुछ दिन बाद चलने फिरने भी लग गए. फिर 26 जनवरी को रुड़का कलां गाकर आए. रुड़का जंडियाला शहर के पास है जहाँ बाबा चिंता भगत जी और बाबा अमी चंद जी की दरगाह है. बाबा अमी चंद जी भी साईं जी की तरह बहुत पहुंचे हुए फ़क़ीर थे जो सिख्या के लिए बापू ब्रहम जोगी जी के पास आते थे. रुड़का कलां हमेशा 26 जनवरी को मेला होता है जहाँ गुरदास मान जी 1988 से लगातार गा रहे हैं. उस समय गुरदास जी पूरी तरह ठीक नहीं हुए थे, लेकिन फिर भी कुछ समय के लिए हाज़री लगाकर आए.

दूसरा एक्सीडेंट 20 जनवरी 2007 करनाल शहर के पास हुआ जिस में गाडी उनका ड्राइवर गणेश चला रहा था, एक्सीडेंट करनाल में हुआ और नकोदर साईं जी की मालिश हो रही थी, काला कहता साईं जी आपके शरीर पर रातो रात नील कैसे पड़ गए. साईं जी ने कहा अभी बताते है तू मालिश कर. फिर कहा अब टीवी लगा, काले ने टीवी लगाया और खबर आ रही थी "गुरदास मान का एक्सीडेंट हुआ". गुरु हमेशा अपने मुरीद का कष्ट अपने ऊपर ले लेता है. एक्सीडेंट के दो दिन बाद ही गुरदास जी दरबार आए और साईं जी के पास बैठे, लेकिन उनसे बैठा नहीं जा रहा था. गुरदास जी बैठे तो साईं जी कहते गुरदास पानी का गिलास लेकर आना. फिर बैठते तो साईं जी फिर कुछ ना कुछ लेकर आने को कह देते. देखने वाले को अजीब लगता लेकिन गुरदास जी बताते हैं की साईं जी ने उन्हें उठा उठा के उनके सारे बल सीधे कर दिए. फिर गुरदास जी जब जाने लगे तो साईं जी ने कहा कल मेला है रुड़का कलां चाहे थोड़ा गा आना लेकिन हाज़री जरूर लगाके आना. गुरदास जी बताते हैं की वह 10 मिनट के लिए गाने गए थे पर उन्हें ऐसा सुरूर आया अपने गुरु की कृपा का कि 1.5 घंटे पट्टी बांध कर गाते रहे. जब गुरदास जी ठीक होगए, तब अख़बार वाले उनके पास आए और सवाल किया कि जब उनका एक्सीडेंट हुआ, तब उनकी आँख लगी हुई थी ? गुरदास जी निम्रता से बोले "आँख तो मेरी बहुत पहले की लगी हुई है, और अगर आंख लगी ना होती तो मैं बचता ना, जिन्होने हाथ पकड़ा था उनको शर्म थी" और बोले लज्जपाल प्रीत को तोड़ते नहीं जिसका हाथ थाम लें फिर छोड़ते नहीं।

“जग में आ कर इधर उधर देखा, तू ही आया नज़र जिधर देखा”

गुरदास जी बताते हैं कि जब उन्होंने नई गाडी ली थी, तब पहले दरबार लेकर आए, पहले साईं जी को गाड़ी में बिठाया, एक चक्कर लगवाया. जब साईं जी गाड़ी से उतरे तब उन्होंने पूछा "गुरदास इस गाडी में क्या ख़ास है ?" गुरदास जी ने निम्रता से कहा "बाबा जी आप इसमें बैठ गए यही ख़ास है"। और जब उनका एक्सीडेंट हुआ तब अकेली वही सीट बची थी जिसपर साईं जी बैठे थे, और बाकी सारी गाडी इकट्ठी हो गयी थी। गुरदास जी भी वही सीट पर बैठे थे, सो साईं जी ने बचा लिया।

दाता अली एहमद साहब (मंढाली वाले बाबा जी) के साथ भी साईं जी का बहुत प्यार था। वह भी बहुत बड़े फ़क़ीर थे, जिन्हों पैरों की आग जलाकर अपने मुरशद को चाय बनाकर पिलाई थी। वह अक्सर साईं जी के पास आते रहते थे। साईं जी को बहुत लोग निमंत्रण देकर जाते थे कि बाबा जी हमारे घर आना, कोई कहता था हमारी दुकान पर आना, और साईं जी घूमते ही रहते थे। एक दिन अली एहमद साहब ने साईं जी को कहा "साईं जी, अब यार के नज़दीक होकर भी बैठ जाओ" साईं जी का एक कमरा है दरबार में, साईं जी 5 साल वही कमरे में रहे और कमरे के बहार पैर भी नहीं रखा, नहाना भी वहीँ और बंदगी भी वहीँ, और सहज के साथ समय निकाल लिया। फ़क़ीरों की रमज़ अलग ही होती है, जिसमे अपने मुरशद के बिना किसी और चीज़ की ख्वाहिश नहीं होती।

एक बार 1984 की बात है, पंजाब में माहौल बहुत खराब था और मंढाली में मेला भी था। साईं जी अपने ड्राइवर के साथ नकोदर से मंढाली की तरफ निकल पड़े, उस समय नूरमहल वाली सड़क टूटी थी और बन रही थी। जिस पर बहुत सारे मज़दूर काम कर रहे थे, ड्राइवर ने साईं जी को कहा, साईं जी हमारे साथ कोई आदमी भी नहीं है, और गाड़ी में बहुत पैसे भी पड़े हैं, हमें वापिस चलना चाहिए, कोई चोर हमें लूट ना ले। साईं जी बोले "अगर ऐसी बात है तो ठीक है, दिग्गी खोलो", फिर साईं जी ने बैग खोला, और जितने भी मजदूर काम कर रहे थे, कोई रोटी पका रहा था, कोई अपने बच्चों के साथ खेल रहा था। सभी को नोट बांटते ही गए, जब पैसे खत्म हो गए, फिर ड्राइवर से हस कर पूछा "अब कोई चोर तो नहीं लूटेगा ?, और बोले चल अब, अगर जाना है तो जाना ही है" सो फ़क़ीर अपनी मौज के मालिक होते हैं ।

जब साईं जी वृद्ध अवस्था में थे, तब एक दिन साईं जी ने गुरदास जी को कहा, "गुरदास यार आज कल लोग कहते हैं, फ़क़ीरों में अब वो करंट नहीं रहा, कहते हमें बिजली का खम्बा ही माने बैठे हैं" करंट तो उनकी नज़र का है चाहे वह सामने हों या ना हों। शरीर कमज़ोर चाहे हो जाए, पर देना फ़क़ीर ने एक नज़र से ही होता है।

“किसी के कान में हीरा किसी के हाथ में हीरा, हमें हीरों से मतलब क्या मेरा तो साईं है हीरा”

जब साईं जी काफी वृद्ध हो गए थे तब मेले में एक या दो बार ही दर्शन देने आते थे. एक बार साईं जी काफी झुक कर सीढ़ियां चढ़ रहे थे कि एक सेवादार ने हाथ जोड़कर साईं जी से कहा "साईं जी थोड़ा सीधा होकर चलो" साईं जी कहते "बेटा हमने जो भी पाया है झुक कर ही पाया है". उन्होंने एक ही बात में सब कह दीया. साईं जी हर मोड़ पर कोई ना कोई शिक्षा दे देते थे. इस फ़क़ीर की आज़माइश के लिए बहुत लोग आए और सब नसमस्तक होकर गए. एक बार एक आदमी ने साईं जी को सव्वाल किया कहता बाबा जी प्यार का क्या मतलब है. साईं जी बोले "जहाँ मतलब आ जाए वहां प्यार नहीं होता" साईं जी हमेशा कहते थे कि, रब भी उनका मददगार होता है जो अपने आप पर भरोसा रखते हैं, और सच्ची नीयत से मेहनत करते हैं, बहुत बार लोग साईं जी को कहते, कि साईं जी हम पर कृपा करना, तब साईं जी उनको कहते " कि आप कोशिश करो, हम कशिश करेंगे।"

एक बार एक भोला इंसान दरबार आया, साईं जी बाहर आग सेक रहे थे। उसने साईं जी से पूछा "बाबा जी को मिलना है ?" साईं जी ने बाबा मुराद शाह जी के दरबार की तरफ इशारा कर दिया, वह इंसान अंदर चला गया, और माथा टेक कर बाहर आ गया, फिर साईं जी से पुछा "बाबा जी तो मिले नहीं, यहाँ बाबा जी कौन हैं ?" साईं जी ने फिर बाबा मुराद शाह जी के दरबार की तरफ इशारा कर दिया, वह फिर माथा टेक कर बाहर आगया। उसने देखा एक इंसान साईं जी के लिए मिठाई लेकर आया, और साईं जी के चरण छूह रहा था, फिर उसे पता चला कि यही बाबा जी हैं, वह भी पास जाकर बैठ गया, दुसरे इंसान ने बाबा जी को मिठाई खिलाई और बोला "बाबा जी मेरा वीसा लग गया है, यह देखिए मेरा पासपोर्ट, और बोला मैं बहुत सालों से इसका इंतज़ार कर रहा था" साईं जी बोले "तुम बाहर जाकर क्या करोगे तुम्हारा सब कुछ यहाँ पर ही है" उस इंसान ने उसी वक़्त पासपोर्ट फाड़ दिया, अग्नि साक्षात् थी और उसी आग में समर्पित कर दिया, साईं जी ने उसका विश्वास देखा और आशीर्वाद दिया, और आज वह इंसान बाहर जाने वाले लोगों से बहुत ज्यादा कामयब और खुशहाल है। गुरु की नज़र भी वहीँ होती है जहाँ गुरु के हुकम की पालना हो, कई बार लोग सोचते हैं कि भगवान हमें नहीं देता, पर हम भूल जाते हैं कि कमी हमारे लेने में है उनके देने में नहीं। इसी लिए गुरदास जी ने एक गाना गाया था "तैनू मंगना ना आवे, ते फ़क़ीर की करे"

अक्सर देखा गया है कि जिस इंसान को किसी चीज़ की ज़रूरत होती, साईं जी उसको अपने आप ही वह दे देते, किसी को भूख लगी होती तो साईं जी उसको खाने को देते, जिसे पैसे की ज़रूरत होती उनकी झोली में वह खुद ही कुछ न कुछ डाल देते। और अगर कोई उदास होता तो उसे कोई ऐसी बात सुनाते की वह अपना दुःख भूल जाता, आज के ज़माने में अपना दुःख भूल जाए और क्या चाहिए, वही तो सिर्फ भूलते नहीं, बाकी हम रब को ज़रूर भूल जाते हैं। पर जो लोग हर सांस के साथ अपने गुरु पीर को याद रख्रते हैं और उनके रस्ते पर झुक कर चलते हैं तो देखा गया है की उनकी झोलियाँ छोटी पड़ जाती हैं पर साईं की रेहमत नहीं रूकती।

“अगर जान भी दें तुम्हे तो यह भी तेरी ही थी भला, गम तो यह है तुझे मैंने क्या दिया”

एक बार साईं जी बहुत बीमार हो गए थे। उनके जनेऊ निकला हुआ था। बहुत कम ही किसी से मिलते थे, करामत अली क़व्वाल मलेरकोटला वाले उनसे मिलने आए। साईं जी ने उन्हें अंदर बुलाया, पहले एक 10,000 की गट्ठी उनकी झोली में डाली फिर पूछा क्या हाल है। कव्वाल बोले बाबा जी आप सारी दुनिया को ठीक करते हो, आप खुद बीमार कैसे हो गए। साईं जी ने क़व्वाल से पूछा, आप अपनी कमाई में से कितना ज़ुकात निकालते हो। उन्होंने कहा इस्लाम में 2.5% बताया गया है, और हम कमाई से 2.5% निकाल देते हैं, साईं जी बोले अपने वज़ूद की भी ज़ुकात है जो हर इंसान को निकालनी पढ़ती है, फिर बोले वह इंसान ही क्या जिसने गम न सहा, गम तो ज़रूरी है ज़िन्दगी में। साईं जी ने 5000 की गट्ठी और उठाई, उनकी झोली में डाली और जाने की इजाज़त दी।

गुरदास मान जी साईं जी के सबसे प्यारे बने, साईं जी ने 2006 मेले में अपनी पगड़ी उतारकर गुरदास जी के सर पर रख दी थी, पगड़ी अपने मुरीद को देने का मतलब होता है कि गुरु अपना सब कुछ अपने मुरीद को अर्पित कर देता है और मुरीद को सदा सदा के लिए अपना बना लेता है. साईं जी ने गुरदास जी को एक अंगूठी भी दी, जिस पर 786 लिखा हुआ था, और कहा इसे कभी मत उतारना आज भी गुरदास जी ने वह अंगूठी अपनी ऊँगली में डाली हुई है। एक बार एक आदमी ने साईं जी से पूछा साईं जी पता कैसे चलता है कि फ़क़ीरी पक्की है या कच्ची, साईं जी बोले "अगर मृत्यु के समय यार लेने आजाए तो पक्की है, अगर यमराज लेने आ जाए फिर कच्ची है" साईं जी के जवाब ही बहुत बड़ी सीख देजाते थे।

“मस्तों का झूमना भी बंदगी से कम नहीं, किसी की याद में मरना भी ज़िन्दगी से कम नहीं”

साईं जी ने शरीर छोड़ने से पहले ही अपनी जगह ज़मीन के अंदर बनवा कर रखी थी. लोग अपने घर और ऊँचे करते हैं, लेकिन अपनी जगह जमीन के अंदर एक सतगुरु ही बना सकता है. उनको पता था कि जाना है, साईं जी कहते होते थे "जब भी देखता हूँ रोज़ा यही बात याद आती है, चलो चल याद आती है, चलो चल याद आती है". दुनियावी मोह माया को छोड़कर अपने यार, अपने गुरु को मिलने का इंतज़ार.

एक दिन साईं जी शरदा जी को कहते, फ़क़ीर चाहे तो 300 साल तक ज़िंदा रह सकता है, और अगर मन उठ जाए तो 3 दिन भी ना काटे। फिर सेवादारों को बुलाया और कहा कि कल दरबार में रश बहुत होगा, गर्मी भी है, टेंट लगवा लेना और पानी का इंतज़ाम भी कर लेना। सेवादारों ने सोचा कि साईं जी पता नहीं ऐसे क्यों कह रहे हैं, जिसका सबको बाद में पता चला कि साईं जी पर्दा कर गए। 1 मई 2008 को गुरूवार वाले दिन साईं जी ने शरीर छोड़ दिया, फिर सेवादारों को पता लगा कि साईं जी ने क्यों इंतज़ाम करने का कहा था, क्यूंकि इतनी संगत आई कि पैर रखने की भी जगह नहीं थी, हर किसी की आँखें नम थी।

साईं जी की मज़ार भी डेरा बाबा मुराद शाह में बनी हुई है। "मेरा लिख ले गुलामा विच्च नाम" साईं जी की पसंदीदा क़व्वाली थी। साईं जी हमेशा अपने आप को गुलाम लिखते रहे। बापू जी अक्सर साईं जी को कुत्तेआ कहकर आवाज़ लगाते थे, और साईं जी ने भी ऐसी निभाई कि मुँह में बापू जी के जूते लेकर आते। तभी आज सारी दुनिया में साईं साईं है।

“अगर हाथ की लकीरें अच्छी ना हों तो किस्मत अच्छी नहीं होती, अगर सर पे हाथ लाडी साईं का हो तो लकीरों की ज़रूरत ही नहीं होती”

साईं जी की बरसी हर साल 1 - 2 मई को बड़ी धूम धाम के साथ मनाई जाती है, एक भरी मेला लगता है जहाँ लाखों में संगत पहुँचती है। देश के हर कोने से हज़ारों साधु, संत और बड़े से बड़े फ़क़ीर भी साईं जी के दरबार में नतमस्तक होने आते हैं, और साईं जी के सामने फरियाद करते हैं कि उनकी फ़क़ीरी में असर पड़े।

फ़क़ीरी आसान नहीं है। अपने आप को मिटा कर गुरु के कबूल होना पड़ता है। फिर जाकर रब से भी ऊपर के रुतबे मुरीद पता है। जिसके लिए "रब" अलफ़ाज़ भी फिर छोटा पड़ जाता है।

“ ਝੋਲੀ ਭਰ ਦੇਊਂ ਮੁਰਾਦਾਂ ਨਾਲ ਤੇਰੀ, ਤੂੰ ਸੱਚੇ ਦਿਲੋਂ ਦੇਖ ਮੰਗ ਕੇ ”